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कविता

विक्रम बेताल और भ्रूण

जसबीर चावला


विक्रम ने हठ न छोड़ा
बेताल को लाद लिया कंधे
बेताल बोला हिंस्र हैं जंगल
चलेंगे शहर के रस्ते
बिखरें / तैर रहे थे जहाँ
परियों / तितलियों के पंख
लटके मासूम सपने
किलकारियों की गूँजें
गुड़ियाओं के टूटे अंग
सोनोग्राफी की दुकानें
भ्रूण का लिंग परीक्षण नहीं होता
नन्हें हाथों के रक्तरंजित छापों से भरी
चिकित्सालयों की दीवारें
सिसकती लोरियाँ
नन्हीं सी परी मेरी लाड़ली
चंदन का पलना रेशम की डोरी
चिर निद्रा में सोई राजकुमारियाँ
हाथों से गला घोंटती / अफीम चटाती दाइयाँ
गा रही नये जमाने की लोरियाँ
लली ऊपर जईयो
लला को भेज दीजो

*

बेताल ने सब दिखाया
बता रास्ता कौन अच्छा है
विक्रम काँप गया
क्रूर हैं शहर
जंगल नहीं मारता अजन्मे
शव फिर उड़ा
पेड़ पर लटक गया
लटक गये थे तब तक जहाँ
हजारों नये कन्या भ्रूण

 


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